अंधकार
अंधकार भरे सोच से लिपटी थी मैं चारो पक्ष धुंधली सी परचाइयों मे खुदको खोज नहीं पाती थी मैं हर रात उम्मीद लेकर धूप के किरने महसूस करने का सोची थी मैं पर किस्मत को थी न मंजूर बादल के गरजने के आवाज से उठ ती थी मैं छोटी चीजो में खुशी का पल धुंधती थी मैं हर एक लफ्ज से शिकायत सी थी मुझे हर एक शक्श से नफ़रत सी थी मुझे बिन मोजब की बात नहीं थी पर इस्का कोई उपय भी ना था शायद मुझे अंधकार मजबूरन क़बूल करना पड़ा और खुद के जसबातों का कुर्बान करना पड़ा सच को खुद के साथ दफना के हर दिन अंधकार में उजाला करके खड़ा होना पड़ा गिले शिकवे को बाहों में लपेट कर अपनाना भी पड़ा की एक दिन हिम्मत से सब बधाईयों को पार करुंगी मैं डट के सामने वाले की लक्ष्मण रेखा याद दिलाऊंगी मैं तितलियों जैसी आशा लेकर टहलती थी मैं होसला रखने का प्रयास करती थी मैं खेर, किस्मत को थी न मंजूर बादल के गरजने के आवाज से फिर उठी थी मैं